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कविता

न होने की गंध

केदारनाथ सिंह


अब कुछ नहीं था
सिर्फ हम लौट रहे थे
इतने सारे लोग सिर झुकाए हुए
चुपचाप लौट रहे थे
उसे नदी को सौंपकर

और नदी अँधेरे में भी
लग रही थी पहले से ज्यादा उदार और अपरंपार
उसके लिए बहना उतना ही सरल था
उतना ही साँवला और परेशान था उसका पानी
और अब हम लौट रहे थे
क्योंकि अब हम खाली थे
सबसे अधिक खाली थे हमारे कंधे
क्योंकि अब हमने नदी का
कर्ज उतार दिया था
न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी
धुँधली-सी
जो चल रही थी आगे-आगे
यों हमें दिख गई बस्ती
यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में

हमारे आने पर भूँका नहीं
एक भी कुत्ता
क्योंकि कुत्तों को सब मालूम था
उस घर के किवाड़
अब भी खुले थे
कुछ नहीं था सिर्फ रस्म के मुताबिक
चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी
थोड़ी-सी आग
और उससे कुछ हटकर
रखा था लोहा
हम बारी-बारी
आग के पास गए और लोहे के पास गए
हमने बारी-बारी झुककर
दोनों को छुआ

यों हम हो गए शुद्ध
यों हम लौट आए
जीवितों की लंबी उदास बिरादरी में
कुछ नहीं था
सिर्फ कच्ची दीवारों
और भीगी खपरैलों से
किसी एक के न होने की
गंध आ रही थी

 


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